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वैचारिकी

स्वर्णिम भारत का संकल्प

रजनीश कुमार शुक्ल


भारत के 76वें स्वाधीनता दिवस पर लाल किला की प्राचीर से देश को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने हर नागरिक से पांच प्रण लेने का आह्वान किया और गुलामी के भाव से स्वतंत्रता की बात कही।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 2014 में ही भारत की संसद में यह आह्वान किया था कि देश को औपनिवेशिक मानसिकता से बाहर आना पड़ेगा। श्रेष्ठ भारत गुलामी के चिन्हों के साथ नहीं बन सकता है, भारत का सशक्त समाज दास मानसिकता के साथ खड़ा नहीं रह सकता है। भारत की स्वाधीनता के 75 वर्ष बाद भी हमारी सभ्यता और संस्कृति में दासता के संस्कार बचे हुए हैं। शासक की श्रेष्ठता उनमें से एक है। शासक सामान्य जन से श्रेष्ठ होता है, यह मानसिकता उसे उन्मत्त बनाती है। ब्रिटिश हुकूमत ने इसे भारतीयों के मन-मस्तिष्क में गहराई तक बैठा दिया। परिणामत: यह देश स्वाधीनता के 75 वर्ष बाद भी श्रेष्ठता की दो तरह की मान्यताओं से जूझ रहा है, वह थी गोरी चमड़ी और विदेशी डिग्री की श्रेष्ठता। जब विदेशी शिक्षा और विदेशी लोगों के श्रेष्ठ होने की भावना मन में होती है तो वस्तुत: यह पराधीन मन की अभिव्यक्ति है। इसको समाप्त करने के लिए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा विगत आठ वर्ष में अनेक यत्न किए गए हैं।

सर्वे भवंतु सुखिन

इसी कड़ी में राष्ट्रीय शिक्षा नीति, जो शिक्षा के क्षेत्र में दुनिया का श्रेष्ठतम दस्तावेज है, सामने आई। यह भारतीयों के लिए, भारतीयों द्वारा बनाई गई और भारत के लोगों द्वारा स्वीकृत शिक्षा नीति है। इसके द्वारा भारतीय शिक्षा के श्रेष्ठ होने की मानसिकता जब आकार लेगी तब समाज के अन्य हिस्सों से भी दासता के अवशेष मिटेंगे। मानसिक गुलामी से मुक्ति सशक्त भारत के लिए आवश्यक है। अपनी प्राचीन विरासत पर आधारित और भविष्योन्मुखी सभ्यता की निर्मिति स्वभाषा और स्वबोध के द्वारा ही हो सकती है। कोई समाज आकाशबेल जैसा नहीं हो सकता। पराई सांस्कृतिक भूमि पर स्वबोध का समाज नहीं खड़ा हो सकता। आज निश्चित रूप से भारत में स्वराज, स्वबोध और सुराज को लेकर एक नया सकारात्मक विधायक विमर्श खड़ा हुआ है। पहली बार ऐसा हुआ है कि राजनैतिक मतभेदों के होते हुए भी इस नए करवट ले रहे भारत के प्रति सर्वत्र सकारात्मक दृष्टि दिखाई दे रही है। इसका कारण बदलता हुआ भारत, दुनिया में तेजी से बढ़ता हुआ भारत है तो दुनिया की समस्याएं भी हैं। दुनिया ने जिस प्रकार की सभ्यता को पिछले तीन- चार सौ वर्ष में निर्मित किया है, अंगीकृत किया है और उसे एकमात्र सभ्यता के रूप में स्वीकृति प्रदान की है, उसने मनुष्य जाति के समक्ष विविध प्रकार के संकट पैदा किए हैं। इस सभ्यता दृष्टि के कारण सुव्यवस्था, लोक कल्याण और पर्यावरण का संकट आसन्न है। ऐसे में स्वाभाविक तौर पर दुनिया भारत की उस अमूर्त सांस्कृतिक परंपरा की ओर देख रही है जो 'सर्वे भवंतु सुखिन: सर्वे संतु निरामया, सर्वे भद्राणि पश्यंतु मा कश्चित् दु:खभाग् भवेत्' की अवधारणा पर आधारित है।

स्वराज का वास्तविक अर्थ

भारतीय भाषाओं में शिक्षा और अनुसंधान गुलामी से मुक्ति का सबसे सशक्त साधन है। परकीयों की भाषा में शिक्षा होगी तो दास मनोवृत्ति जीवन के सभी हिस्सों में बनी रहेगी। इसलिए इस दासता से मुक्ति का तात्पर्य है अपनी भाषा,अपनी सभ्यता संस्कृति पर न केवल गर्व करना अपितु उसे जीवन व्यवहार में उतारना। यही वास्तविक स्वबोध है और यही वास्तविक स्वराज है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जिन पांच संकल्पों की बात कर रहे हैं वह समस्त संकल्प एक-दूसरे पर आश्रित हैं। इन्हीं संकल्पों का सपना महात्मा गांधी ने 'हिंद स्वराज' में देखा था। स्वराज से तात्पर्य हीनता और दासता की ग्रंथि से मुक्ति है और अपने श्रेष्ठ को स्वीकार करते हुए दुनिया में जो कुछ भी श्रेष्ठतम है उसका अपने लोगों के अनुसार अनुकूलन करना है। जो कुछ भी हमें आत्म गौरव से च्युत करता है, ऐसे सभी प्रकार के विचार, व्यवस्था और चिन्हों को हटा देना है। इसके लिए जरूरी है कि भारत के इतिहास का एक पुनर्पाठ हो। भारत के ज्ञान-परंपरा की जीवन के सभी क्षेत्रों में स्वीकृति बने, भारतीय मूल्य व्यवस्था को समाज जीवन में स्थान प्राप्त हो और सर्वत्र स्वदेशी, स्वभाषा और स्वबोध की भावना निर्मित हो। इसे प्रत्येक व्यक्ति को अपने जीवन में एक पवित्र प्रण की तरह स्वीकार करना ही चाहिए। वस्तुत: यह प्रण स्वभाषा, स्वदेशी और स्वबोध के साथ सर्वत्र दासता के चिन्हों से मुक्ति का उपक्रम है। प्रधानमंत्री मोदी ने दासता के हर चिन्ह से मुक्ति का आह्वान किया। यह राजनैतिक दासता से मुक्त भारत में सांस्कृतिक और वैचारिक स्वराज्य की स्थापना का आह्वान है।

अपनी भाषा पर करें गौरव

स्वातंत्र्य का गौरव भाव सर्वत्र तभी आएगा, जब शासकीय व्यवस्थाओं से लेकर पारिवारिक जीवन तक हम पश्चिम से आरोपित जीवन मूल्यों से मुक्ति प्राप्त कर सकें। इस दृष्टि से भाषिक स्वराज्य सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। औपनिवेशीकरण की पूरी प्रक्रिया में भाषा ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। शिक्षा के भारतीयकरण का अभियान भी भाषा के माध्यम से ही होगा। नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति इस प्रकार के दृढ़ विश्वास का प्रतिपादन है। भारत भारतीय भाषाओं में बोले, व्यवहार करें, पढ़े और अनुसंधान करे तो दासता से सहज मुक्ति प्राप्त होगी। इस अवसर पर 'स्वराज इन आइडियाज' में के.सी. भट्टाचार्य द्वारा लिखी गई पंक्तियों को मैं याद करना चाहूंगा कि 'मेरे संपूर्ण चिंतन में मौलिकता का अभाव हो गया है। पश्चिमी भाषा का यह प्रभाव मेरे ऊपर पड़ा है कि मैं अपनी मातृभाषा में न कुछ लिख सकता हूं, न कुछ सोच सकता हूं।' भाषा और संस्कृति की गुलामी राजनैतिक गुलामी से भी अधिक खतरनाक है। अंग्रेजों के आगमन के बाद लगातार भारत को गुलाम बनाने के जो यत्न हुए, उसमें उनका सबसे बड़ा उपकरण भारतीय शिक्षा, जो सही अर्थों में राष्ट्रीय शिक्षा थी, को नष्ट करना ही था।

छोड़ना होगा अनुकरण

यह सच है कि 1947 में अंग्रेज चले गए, लेकिन अंग्रेजियत अभी भी जीवन के हर हिस्से में प्रभावी है। भारतीय ज्ञान, विज्ञान और उसकी श्रेष्ठता के प्रति संशय और अविश्वास, यह औपनिवेशिक मानसिकता का फल है। दासता, वह सभ्यता की हो या संस्कृति की, भाषा की हो या जीवन दर्शन की, यह व्यक्ति, समाज और राष्ट्र दोनों को सच्चे स्वराज बोध के साथ खड़े होने से रोकती है। वास्तविक स्वातंत्र्य, जो पश्चिमीकरण के प्रतिरोध से ही प्राप्त होगा, उसके लिए जरूरी है कि दासता के सभी चिन्ह, वो चाहे आस्था प्रणाली के रूप में आरोपित हों या विचारभूमि के रूप में, सामाजिक विज्ञानों में हों या अनुसंधान प्रणाली में, उन सबको स्वदेशानुकूल किया जाए, युगानुकूल किया जाए और भारतीयता के भाव से भरा जाए। अन्यथा 'जय अनुसंधान' का जो नारा है, वह केवल पश्चिम का अनुकरण करना मात्र रह जाएगा। अनुकरण से कोई देश अपने पैरों पर नहीं खड़ा होता, अनुकरण से कोई समाज अपने प्रतिद्वंद्वियों से आंखें मिलाकर बात नहीं कर सकता। बराबरी का संवाद और व्यवहार तभी संभव है जब स्वातंत्र्य के गौरवबोध से व्यक्ति और राष्ट्र दोनों खड़े हों।

चेतना भी हो स्वतंत्र

गुलामी के हर चिन्ह से मुक्ति का सबसे बड़ा अभियान राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 है, जो भारत की युवा पीढ़ी को, भारत के भविष्य को, भारत की सांस्कृतिक परंपराओं के आलोक में खड़े होने का आह्वान करती है। एक भारत-श्रेष्ठ भारत, आत्मनिर्भर भारत और विश्व में नेतृत्वकारी भूमिका निभाने वाला भारत तभी होगा जब हम आत्मा के स्तर पर, बुद्धि के स्तर पर, भावना के स्तर पर, हर ओर, हर क्षेत्र में स्वतंत्रता, स्वराज्य और स्वबोध से भरे होंगे। गुलाम मनुष्य न तो गौरव से जी सकता है और न अपना श्रेष्ठतम योगदान ही कर सकता है। यह व्यक्ति को गौरव प्रदान करने, मानवीय गरिमा की स्थापना, समाज को समरस बनाने और सभी प्रकार के सामाजिक विभेदों को मिटाने के लिए आवश्यक अंग है। इस देश में पंथ, जाति, भाषा, क्षेत्र के नाम पर विभाजन गुलामी की देन है और सैकड़ों वर्षों के इस क्रम में यह हमारी चेतना का कहीं एक हिस्सा बन गया है। गुलामी के चिन्ह को मिटाना, सभी प्रकार की दासता से मुक्ति पाना है। मन को भारतीय बनाना है, चेतना को भारतीय बनाना है। भारतीय चेतना, भारतीय चैतन्य को स्वाभिमान से भरना है, स्वबोध से जोड़ना है। एक दृष्टि से विचार किया जाए तो यह गांधी और सावरकर, विवेकानंद और अरविंद जैसे महान लोगों के श्रेष्ठ भारत के सपने से जोड़ना है। किसी भी क्षेत्र में वेशभूषा, आचार-व्यवहार, भाषा, ज्ञान, विज्ञान इसमें अकारण, अनावश्यक और अनजाने आक्रमणकारी और परदेशी शासकों की परंपरा को बनाए रखना, बचाए रखना, भारत की प्रगति-गति को मध्यम करना है।

कर्तव्यों को समर्पित हो जनमानस

स्वतंत्र मन-मानस के साथ, भारत अपनी भूमिका का निवर्हन तभी करेगा जब हमारे हर नागरिक के व्यक्तिगत जीवन में दासता का कोई चिह्न, कोई भाव किसी रूप में न रहे। इसके लिए जरूरी है कि भारतीयों को अपनी विरासत पर गर्व हो, भारतीय जन की विशिष्टता, एकजुटता और एकात्मकता का बोध हो। प्रत्येक नागरिक के मन में स्वीकृति बने कि स्वतंत्र भारत के नागरिक के रूप में उसने जो संविधान आत्मार्पित किया है, उस संविधान में जन के लिए निर्धारित कर्तव्य उसके अपने हैं, यह परकीयों द्वारा थोपा हुआ नहीं है। इसके साथ ही गुलामी के चिन्ह मिटाना यानी नई समाज व्यवस्था की रचना करना है। उस समाज व्यवस्था से मुक्ति पानी है जो श्रमिक और बुद्धिजीवी के बीच भेद करती है। उस व्यवस्था से मुक्ति पाना है जो रंग के आधार पर, जन्म के आधार पर, उपासना-पंथ के आधार पर व्यक्ति और समाज में गैर-बराबरी का सृजन करती है। औपनिवेशिक मानसिकता से मुक्ति ही समत्व की दृष्टि है। यह श्रेष्ठता की दृष्टि है और अपने लोगों, अपनी भाषा, अपने समाज, अपने राष्ट्र के प्रति गौरव से परिपूर्ण होने की दृष्टि है। इस जागरण के आधार पर हम एक श्रेष्ठ भारत निर्मित कर सकते हैं जो अन्य चार प्रणों की पूर्ति के लिए हर नागरिक के जीवन में अधिष्ठान का काम करेगा।


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